संसद से सड़क तक औरत की जंग 

bushra khan noori 
साल 2017 यानी 21 वीं सदी का पहला दशक जारी है,  दुनिया बेहद तेज़ी के साथ बदल रही है. हर क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आ रहे हैं. लोग नयी टेक्नोलॉजी, नयी सोच, नयी जीवनशैली अपना रहे हैं.  मगर पूरी दुनिया में आधी आबादी की जद्दोजेहद अभी भी जारी है. आधी आबादी यानी महिलाएं. भारत की महिलाएं अगर आज भी हर स्तर पर अपनी आज़ादी और अधिकारों के लिए लड़ती नज़र आती हैं तो ज़्यादा अचम्भे या हैरानी की बात नहीं।
यहाँ सदियों से सामाजिक परम्पराओं, रीति रिवाज़ों, कर्मकांडों की बेड़ियों से खुद को आज़ाद कराने की औरत की ये लम्बी लड़ाई है. हैरान करने वाली खबर अमेरिका जैसे विकसित देश की है जहाँ महिलाएं संसद में स्लीवलेस ड्रेस पहनने के अधिकार की मांग को लेकर प्रदर्शन करने को मजबूर हो गयीं. वो भी कोई आम महिलाएं नहीं बल्कि संसद की सदस्य. 30 महिला सांसदों ने बिना बाजू वाले कपड़े पहनकर खुले बाजू के अधिकार के लिए प्रदर्शन किया. स्लीवलेस कपड़े पहनने की मांग को लेकर महिला सांसद ‘स्लीवलेस फ्राइडे’ नाम का अभियान चला रही हैं. ये खबर भारत की महिलाओं को हौसला भी दे सकती है और दिल को तसल्ली भी. हौसला इसलिए कि सात समुन्दर पार गोरी मैडमें भी हैं जो उनकी तरह अपने हक़ के लिए खड़ी हैं और तसल्ली यूँ कि आखिर वो ही अकेली नहीं हैं जो दबी-कुचली हैं.   हमारे देश की महिलाएं आये दिनों अनेकोँ आंदोलन करने को मजबूर रहती हैं. जैसे दरिंदगी की शिकार हुई निर्भया को इन्साफ दिलाने की मांग लेकर सड़कों पर आंदोलन. हैवानिया की शिकार हुई महिलाएं इन्साफ पाने का इन्तिज़ार करती रहती हैं. बलात्कार सिर्फ भारत ही नहीं नारी के साथ होने वाला विश्वव्यापी अपराध है, जिसका शिकार हर उम्र की औरतें, लड़कियां और छोटी बच्चियां तक होती हैं. राजनीती में भी महिलायें हाशिये पर हैं. संसद में एक तिहाई आरक्षण के लिए वर्षों से बाट जोह रही  हैं. लोग बेशक इंदिरा गाँधी, सोनिया गाँधी, सुषमा स्वराज, उमा भारती या मीरा कुमार आदि महिला नेत्रियों के नाम लेकर राजनीति में उनकी भागीदारी पुरुषों के बराबर बताकर गौरवान्वित महसूस करें, लेकिन देश को 1947 से अब तक सिर्फ एक महिला प्रधानमन्त्री मिली है. संसद से निकल कर यदि बात सड़क की करें तो यहां सड़क पर शाम ढले या देर रात को घर से बाहर रहने के लिए सुरक्षित माहौल बनाने की की मांग को लेकर लड़ रही हैं. दफ्तरों में भी यौन उत्पीड़न की मार सहती हैं. अस्पतालों तक पहुंचने की सुविधाओं के आभाव में गर्भवती महिलाएं सड़कों पर बच्चे पैदा कर मर जाती हैं.
कुपोषण, अस्पतालों में उचित ईलाज न मिलने आदि कारणों से हज़ारों महिलाएं हर साल बच्चा पैदा होने के दौरान दम तोड़ देती हैं. अधिकांश बेटियों को गर्भ में ही मार देने का सिलसिला आज भी जारी है. बेटी पैदा हो जाए तो उसे अनेकों बार कचरे में फेंक दिया जाता है. सती प्रथा समाप्त हुई पर छोटी बच्चियों को आज भी ब्याह दिया जाता है. विधवा होने पर औरतों को विधवा आश्रम जाने को मजबूर किया जाता है और बाकी बचा हुआ जीवन विधवा के लिए बनाये गए कड़े नियमों का पालन करके गुजरने को मजबूर किया जाता है. अगर कभी वृंदावन में सदियों बाद विधवा महिलाएं को फूलों से होली खेलने की आज़ादी दे दे जाती है तो इसे बहुत बड़ी क्रांति या बदलाव मान कर सीना ठोका जाता है. सैकड़ों गांवों में शौचालय नहीं हैं. माएं, बहनें, बेटियां खुले में शौच के लिए मजबूर हैं. सूरज निकलने से पहले महिलाएं खेतों, मैदानों में शौच को जाती हैं. जहाँ मनचले उन पर टॉर्च की रौशनी डालकर, सीटियां बजाकर उन्हें परेशान करते हैं. इसलिए घर के पुरुष अपने घर की बहन-बेटियों के साथ जाते हैं और दूर खड़े होकर असामाजिक तत्वों से उनकी सुरक्षा करते हैं. रात के समय लड़कियां अकेली खेतों में नहीं जा सकतीं. भाई, पिता या पति को बार बार खेतों में अपनी रक्षा के लिए साथ चलने को कहना लज्जा का विषय है. मासिकधर्म के समय जब लड़कियों को अधिक बार टॉयलेट का इस्तिमाल करने की ज़रुरत होती है तो ऐसे में वे घर के कच्चे आंगनों में गड्ढे खोदकर उनका प्रयोग करती हैं. वहीँ शौचालय बनवाने की जगह खुले में शौच की समस्या से निपटने का तरीका ये निकाला जाता है कि खुले में शौच कर रहे पुरुषों व् महिलाओं पर सरकारी लोगों द्वारा टोर्च से रौशनी डाल कर उन्हें शर्मिंदा किया जाता है ताकि वे खुले में शौच न करें. रौशनी पड़ने पर शौच कर रही महिलायें अर्धनग्न अवस्था में भागती हैं और सरकारी लोग उनके पीछे भागकर उन्हें दूर तक हकालते हैं.
(Photo courtesy by Yawar Nazir/ Getty Images)
हरियाणा, राजस्थान आदि जगहों पर ऑनर किलिंग के नाम पर बेटियों को मारा जाता है. तो कहीं उनके जीन्स पहनने या मोबाइल फ़ोन रखने पर पाबंदियां लगती हैं. महिलाओं के खिलाफ  होने वाले अपराधों में एसिड अटैक एक जधन्य अपराध है. दुनिया भर में महिलाओं को हर स्तर पर पक्षपात का सामना करना पड़ता है.  हाल ही में सीबीएस न्यूज़ रिपोर्ट में एक युवा महिला पत्रकार के बिना बाजू के कपड़े पहनने के कारण उसे कमरे में नहीं जाने देने के साथ ही एक नई बहस को जन्म दिया था. दरअसल अमेरिकी संसद में महिला रिपोर्टरों और सांसदों को ढकी बाजू वाले कपड़े पहन कर आना अनिवार्य है. पुरुषों के लिए जैकेट और टाई पहनना अनिवार्य है.कांग्रेस सदस्य चिली पिन्ग्री ने ट्वीट किया था, यह 2017 है, महिलाएं वोट डाल रही हैं, कार्यालय चला रहीं हैं और अपने तरीके से रह रहीं हैं. सदन के नियम बदलने का वक़्त आ गया है. प्रदर्शन की शुरुआत रिपब्लिकन सांसद मार्था मैकसेली के इस कथन से हुई, मैं यहां अपने प्रोफेशनल ड्रेस में हूं जो कि बिना बाजू की है और शूज आगे से खुले हुए हैं इसके साथ ही स्पीकर महोदय मैं वापस जाती हूं. वैसे नारी देह और उसके पहनावे पर चर्चा हमेशा में रहती है. बलात्कार के बाद भी बहस लड़की के कपड़ों को लेकर शुरू हो जाती है. ऐसे अपराधों की वजह लड़की के छोटे कपड़े बताने वालों की भी कमी नहीं होती. ये औरत का निजी अधिकार है की उसे क्या पहनना है क्या नहीं. ज़रुरत लोगों को अपनी सोच बदलने की है.

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