Article by: Bushra Khan
”लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती, एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती” मुन्नवर राणा
मां, माई, अम्मा, माॅम, मदर, या अम्मी….मां को चाहे जिस नाम से पुकार लो, अर्थ सिर्फ एक ही है। ममता, दुलार, वात्सल्य। साल 2017 खत्म होने को है। इस जाने वाले साल में कौन कौन सी अच्छी बुरी घटनाएं हुईं इस पर चर्चाएं हो रही हैं। क्या पाया क्या खोया हिसाब किताब पूरे हो चुके हैं। तरह तरह के अपराधों के आंकड़े भी तैयार होने लगे हैं, लेकिन देश में इंसाफ पान के लिए कितनी माओं ने कितने खून के आंसू बहाए़? छातियां पीटीं? सड़कों पर हाकिमों के सामने गुहारें लगाईं? शायद यह आंकड़ा किसी ने तैयार नहीं किया होगा। क्योंकि आाखिर इस में नयी बात क्या है। किसे परवाह है क्यांेकि यह तो हमेशा से होता रहा है।
(निर्भया) इस साल निर्भया बलात्कार मामले की पांचवी बरसी मनाई गई। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली के वसंत विहार में एक मासूम लड़की के साथ दरिंदगी की सारी हदें पार की गईं थीं। निर्भया डाॅक्टर बन कर समाज सेवा करना चाहती थी। एक मातापिता की वह एक अकेली लाडली बिटिया और एक भाई की अकेली नटखट सी बहन।

हर मुश्किल हालात में भी पढ़लिख कर देश के लिए कुछ करने की चमक थी उस की आंखों में। लेकिन उस जमा देने वाली ठंडी स्याह रात में हवस के दरिंदों ने उसके साथ जो किया उस के लिए अपराधियों को जितनी भी सजा दी जाए कम होगी। हालांकि दिल्ली सहित पूरे देश में इस तरह की घटनांए हर रोज की बात है। लेकिन इस घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था।
हर तबका निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए सड़कों पर उतर आया था। निर्भया की मां सड़कों पर उतरी अपनी बेटी के लिए न्याय की मांग लेकर। चीखीए चिल्लाईए रोई कि उस की बेटी को जल्द न्याय दिया जाए। निर्भया के नाम पर कानून भी बना। फास्ट ट्रैक कोर्ट में केस की सुनवाई भी हुई लेकिन न्याय अभी अधूरा है।
क्योंकि हमारी न्याय प्रक्रिया अपनी ही गति से चलती है। हर वर्ष 16 दिसंबर को यह मां नम आंखों से दिल्ली की सड़कों पर निकलती है। शायद उस की बेटी के बहाने कोई ऐसा रास्ता निकल आए कि और बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो जाऐ। लेकिन इन पांच सालों में कुछ भी नहीं बदला। बेटियों के साथ बलात्कारए छेड़छाड़ए अपहरण सब कुछ पहले जैसा चल रहा है। कहीं ज्यादा तो कहीं कुछ कम। हांए इन पांच सालों में इस मां की आंखों के आंसू अब जरूर सूख चुके हैं। अब आंखें रोने लायक नहीं रहीं। अब रोता है तो केवल मां का कलेजा।
(नजीब अहमद ) मेरा नजीब मुझे लौटा दो… जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू ) के बाओटैक्नाॅलाजी केे पहले साल का विद्यार्थी नबीब अहमद को लापता हुए इस साल के बीते15 अक्टूबर को एक साल पूरा हो चुका है। लेकिन फातिमा के इस लाल का न तो देश की पुलिस कोई सुराग लगी पायी है और न सीबीआई । उत्तरप्रदेश के एक गांव का रहने वाला नबीब डाॅक्टर बनना चाहता था। अपने सपनों को पूरा करने के लिए उस ने दिल्ली के इस विश्वविद्यालय का चुनाव किया था। एक दिन कैंपस में हुए झगड़े के बाद 15 अक्टूबर 2012 को नौजवान नजीब लापता हो गया था। नजीब की मां फातिमा दिल्ली की सड़कों पर गुहार लगाती रही कि कोई उस के बेटे को ढूंढ कर ला दो। मगर आज तक यह मां बेटे की एक झलक नहीं पा सकी है। कैंपस में मारपीट में बुरी तरह से घायल बेटा बस अपनी मां के पास जाना चाहता था। नजीब ने मां को फोन कर के बताया कि उस के साथ मारपीट की घटना हुई है तो मां का कलेजा दहल उठा।
MOTHER OF NAJEEB AHMED

मां ने दहाड़ा मारते हुए कहा मैं आ रही हूँ मेरे बच्चे । हिम्मत मत हारना। आनन्-फानन में वह तुरंत दिल्ली के लिए रवाना हुई। पूरे सफर के दौरान उस मां ने अपने बेटे की सलामती की कितनी दुआएं मांगी होंगी? सोचा होगा मिलते ही अपने बेटे को सीने से लगा लेगी।
बचपन की तरह अपने आंचल में समेट लेगी और उस के हर जख्म पर अपनी ममता का मरहम लगा देगी। लेकिन कैंपस पहुंचने पर उस मां को अपना बेटा कहीं नहीं मिला। उस दिन से इस मां की तलाश और आंसूओं का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक जारी है। इंसाफ तो नहीं मिला लेकिन दिल्ली पुलिस ने एक मजबूर मां को सड़क पर धसीटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मां को यह भी सलाह दी जा रही है कि वह शांत रहे अमला अपना काम कर रहा है।
नजीब की बहन और भाई भी अपने भाई की तलाश में बदहवास हो गए हैं। मां कहती है कि मेरे बेटे के साथ जिन्होंने मारपीट की है मैं उन्हें कोई सजा नहीं दिलाना चाहती। बस मेरे बेटे को ढूंढ कर ला दो। मैं उसे लेकर अपने गांव चली जाउंगी। मुझे किसी माई के बच्चों को सजा नहीं दिलवानी। मैं किसी बच्चे की जिंदगी बरबाद नहीं करना चाहती। मां की बस एक मांग हैं,” मेरा नजीब लौटा दो…मेरा नजीब मुझे लौटा दो…
(रोहित वेमूला) हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला 28 वर्षिय पीएचडी के छात्र रोहित वेमूला ने 17 जनवरी 2016 को हौस्टल के एक कमरे में आत्महत्या कर ली थी। आंध्रप्रदेश के गुंटूर का रहने वाला था।
रोहित व अन्य कई छात्रों को कैंपस में तथाकथित तौर पर हुए लड़ाई झगड़े के कारण हौस्टल से निलंबित कर दिया गया था और उस की फैलोशिप रोक दी गई थी। रोहित एक होनहार छात्र था। विज्ञान और लेखन में उस की गहरी रूचि थी. अत्यधिक मानसिक पीड़ा में होने पर ही कोई जिंदिगी ख़तम करने जैसा फैसला लेता है. वरना हर रोज़ के इम्तिहानों का तो इंसान आदी हो जाता है.

रोहित की मां घर में दूसरों के कपड़े सिलकर अपना गुजारा करती है। बेटे ने हैदराबाद में आत्महत्या कर ली मां आखिरी बार अपने जिंदा बेटे की सूरत भी नहीं देख सकीं। अगर मां पास होती तो उसे हौसला बंधाती। उस की जिंदगी में आए उस अंधेरे दौर का सीना चीरकर मां अपने बेटे के हिस्से की खुशियां लाकर रख देती।
जैसे बचपन में कोई खिलौना ला कर वह पहले अपनी पीठ के पीछे छुपा लेती थी और फिर अचानक बच्चे के सामने उस खिलौने को रखकर उस की आंखों में खुशी की चमक को महसूस कर के फूले नहीं समाती। लेकिन अफसोस मां बेटे से मीलों दूर थी। रोहित की मां और उस के दोस्त सरकार और प्रशासन से अपने बेटे के लिए इंसाफ की गुहार लगाती रही । लेकिन बेटे के गुनहगारों को सजा दिलवाने की आस लगाए बैठी इस माँ को भी अभी न्याय नहीं मिला है. यहाँ देश के एक नौजवान और एक माँ के बेटे पर नहीं बल्कि फोकस इस बात पर है कि रोहित किस जाती का था जिस की आड़ में सियसतदान अपनी रोटियां सेकने में लगे हैं.
( जुनेद खान) रमजान के पवित्र महीने में रोजे रखने और कुरान शरीफ की तिलावत करने के बाद अब वक्त था जब बच्चे ईद के लिए अपने मनपसंद रंगबिरंग कपड़े खरीदने के लिए बाजारों का रूख करते हैं। हरियाणा के खंदावाल गांव का रहने वाल अल्हड़ जुनेद भी अपने भाइयों के साथ खुशी खुशी दिल्ली के एक बाजार से कपड़े खरीदने आया था। माँ से कहकर की बस यूँ गया और यूँ आया. इस बार हीरो जैसा दिखकर दोस्तों पर और ज़्यादा रौब भी तो जमाना होगा.
MOTHER OF JUNED KHAN

अपने पसंद की पोशाख ली और बस अब घर जा कर अम्मी को कपड़े दिखाने की जल्दी थी। दिल्ली से घर लौटने के लिए जुनेद और उस के भाई पलवल जाने वाली टेन में सवार हुए लेकिन घर के लिए शुरू किए गए इस सफर ने उसे किसी दूसरी दुनिया में पहुंचा दिया जहां से वापसी का कोई रास्ता नहीं। कुछ शिददत पसंद लोगों से कहासुनी होने पर उन्होंने उस बच्चे को चाकुओं से गोद कर मार डाला। घर पर मां बाप अपने लाल का इंतजार कर रहे थे लेकिन मां की गोद में पहुंची तो बेटे की खून में लथपथ लाश। इस मां पर क्या गुजरी इस बात का अंदाजा हर औलाद वाला लगा सकता है। जुनेद तो चला गया लेकिन अपनी मां को हमेशा के लिए रोता बिलखता छोड़ गया
(गोरखपुर में नवजातों की मौतें ) इस साल उत्तरपद्रदेश के गोरखपुर के बीआरडी मेडीकल काॅलेज में आॅक्सीजन की कमी से हुए 33 से ज्यादा नवजातों की मौतों से अफरा-तफरी मचा दी थी। 11 अगस्त 2017 को इस सरकारी अस्पताल में अचानक आॅक्सीजन खत्म होने के कारण एक के बाद एक नवजातों व छोटे बच्चों की मौतें होना शुरू हो गईं। पूरा देश सदमें में आ गया था। आखिर अस्पताल में आॅक्सीजन क्यों खत्म हुई? किस का दोष था? कौन जिम्मदार है? इन सब पर आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर सा चला पड़ा। लेकिन उन माओं की सिसकियां किसी के कानों तक नहीं पहुंची जिन के बच्चों की नन्हीं-नन्हीं सांसे उन की आंखों के सामने थमना शुरू हो गई थीं और अंत में उन के जिगर के टूकड़ों को देश में इतनी भी हवा नहीं मिली कि वे जिंदा रहने के लिए सांस ले सकें. माँ के बस में होता तो निःसन्देश वो अपनी एक-एक सांस दे देती।

माओं की गोदें उजड़ गईं। किस से गुहार लगातीं? कौन था सुनने वाला? चीखते पुकारते यहां-वहां भागती रहीं कि बस किसी तरह से उन के बच्चे की जान बच जाए। लेकिन सुनने और देखने वालों ने कानों में तेल और आंखों पर काली पटटी बांध ली। किसी मां को इंसाफ मिला क्या?
(प्रद्युम्न ठाकुर) गुड़गांव के रायन इंटरनेशनल स्कूल में दूसरी कक्षा का छात्र प्रद्युम्न भी हैवानियत का शिकार हो गया।घटना सितम्बर महीने की है. जिन स्कूलों में मांबाप अपने बच्चों को भेजकर बेफिक्र महसूस करते हैं। जब वही स्कूल उन के बच्चों को निगल जाएं तो इस से दुखदायी भला क्या हो सकता है। सुबह अपने बच्चे को स्कूल यूनिफार्म पहना तैयार कर के स्कूल भेजने वाली मां को क्या यह मालूम था कि आज वह अपने बच्चे को आखिरी बार जिंदा देख रही है।
इस के बाद इस मां ने अपने लाल को कभी बोलते नहीं देखा। मां न्याय की गुहार लगी रही है। उसे न्याय चाहिए। उस के मासूम बच्चेे के कातिलों को वह बीच सड़क पर सजा देना चाहती है।मासूम बेटे को इन्साफ दिलाने की कानूनी जंग जारी है. माँ जीत भी गयी तो भी गोद खली ही रहेगी. इस साल इस तरह की कई और भी घटनाएं सामने आई हैं।
