गोरखपुर घटना

By: अनुराग मिश्र

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हम सभी का नजरिया किसी घटना या विषय पर भिन्न भिन्न हो सकता है पर सत्य तो सत्य है उसे हमारे नज़रिये से क्या फर्क पड़ता है। अभी निकट अतीत में गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में एक दर्दनाक घटना घटी जिसमे लगभग 48 घंटों में 48 बच्चों की मौत ऑक्सीजन की कमी के कारण हुई। मीडिया के सभी चैनलों ने इस घटना का विश्लेषण अपने तरीके से करते हुए अपना नजरिया लोगों के सामने रखा जो असल में उनका नजरिया था जिसको सत्य मानने की बाध्यता नहीं है। हम जो ये ज्ञान बाँट रहे हैं इसे भी सच मानने के लिए हम आपको बाध्य नहीं कर सकते हैं पर क्योंकि हमारा कोई निजी स्वार्थ नहीं जुड़ा है, इसलिए इस लेख में जो भी सवाल उठाए जाएं आप उन पर ईमानदारी से विचार अवश्य करें।
मीडिया और सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग अतीत में भी होता रहा है इसमें कोई दो राय नहीं है पर जैसा “उत्कृष्टम दुरूपयोग” 2104 के बाद से हो रहा है वो चिंताजनक है। अभी जल्द ही सेंसर बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने खुलासा किया कि पंजाब में नशे के कारोबार पर आधारित फिल्म “उड़ता पंजाब” को पास न करने के लिए सरकार ने उन्हें आदेश दिया था जोकि पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान रिलीज़ होने वाली थी जो की पूर्णतः अलोकतांत्रिक और हिटलरशाही आदेश था। गिनती के इक्का-दुक्का चैनल हैं जो सत्य दिखाने की हिम्मत रखते हैं पर बड़ी बेशर्मी से दावा सभी करते हैं।
नेताओं के साथ-साथ मीडिया और भ्रष्ट तंत्र के संचालक अधिकारीयों ने इस हत्याकांड को हादसे या एक सामान्य घटना के रूप में प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की।
इस वीभत्स और अत्यंत पीड़ादायी घटना के बाद देश और दुनिया के शायद सबसे क्रूर व्यक्ति को भी ठीक से नींद न आए लेकिन वहां गोरखपुर में आरोपों का खेल शुरू हो चुका था। इस घटना का ज़िम्मेदार कौन है और किसे सज़ा दी जाए और किसे बचाया जाय इसपर मंथन हो रहा था। वो जो शायद स्वयं हत्या के आरोपी होने चाहिए थे वो हत्यारों की नई सूची तैयार करने में व्यस्त थे क्योंकि समय उनका बलवान था जो हर 5 साल में बदलता रहता है। अंततः सत्ता पक्ष द्वारा जिलाधिकारी की निगरानी में एक जांच कमेटी बनाई गई जिसकी रिपोर्ट काफी आश्चर्यजनक रही। नेता से लेकर अधिकारी तक सभी के जवाब अलग-अलग थे।
मासूमों की लाशों पर राजनीतिक बयानबाजी भी कहाँ रुकने वाली थी, एक तरफ भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा कि ऐसे हादसे तो होते रहते हैं वहीँ सूबे के स्वास्थ्य मंत्री अखिलेश सरकार के दौरान हुए मौतों के आंकड़े दिखाकर अपने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की हां में हां मिलाते दिखे और जहां तक रही विपक्ष की बात तो वो इस महान लोकतंत्र पर हमेशा की तरह इस बार भी काला धब्बा ही साबित हुआ। नेता और कई अधिकारी कहते रहे की मौतें ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुई तो सवाल है कि कमेटी की रिपोर्ट में फैज़ाबाद से 100 गैस सिलिंडर मंगाने का जिक्र क्यों है जब कमी ही नहीं थी ? हैरानी की बात ये है कि कमेटी ने ऑक्सीजन सिलिंडर की पूर्ती करने वाली कंपनी पुष्पा सेल्स को ही दोषी बना दिया जो 6 महीने से अपने बकाया लगभग 63 लाख रुपयों के भुगतान की मांग मुख्यमंत्री कार्यालय तक कर चुकी है।
नियमतः कंपनी सिर्फ 10 लाख तक उधार अस्पताल को दे सकती है और उससे ज्यादा देने के लिए सरकार कंपनी को बाध्य नहीं कर सकती। सवाल है कि क्या सरकार मानवीय आधारों पर बिना भुगतान के असीमित ऑक्सीजन सिलिंडर ले सकती है और मजबूरी में कंपनी द्वारा पूर्ती रोक दिए जाने पर उसे ही दोषी साबित कर सकती है ? अजीब बात ये है की यदि माननीय मंत्री और अधिकारी ये कहते रहे की मौतें ऑक्सीजन की कमी के कारण नहीं हुई तो फिर पुष्पा सेल्स को दोषी कैसे करार दिया गया? नेताओं की ऐसे समय पर झूठी बयानबाजी या कमेटी के गलत फैसले के खिलाफ क्या कोई आवाज उठाएगा? क्या इनके खिलाफ भी कोई सजा का प्रावधान है ? शायद नहीं।
इतने संवेदनशील मुद्दे पर भी अधिकारियों का सुस्त और गैर ज़िम्मेदाराना रवैया भ्रष्टाचार की ओर इशारा करता है। अधिकारी कमीशनखोरी के चक्कर में फैज़ाबाद या इलाहबाद से सिलिंडर मंगाना चाहते थे जबकि आपातकाल में गोरखपुर में भी सिलिंडर का प्रबंध किया जा सकता था। सुनने में तो ये भी आ रहा कि इंसेफेलाइटिस वार्ड के सैकड़ों कर्मचारियों को 6 महीने का वेतन नहीं मिला है। सरकार का ये रवैया दुःखद और निराशजनक है। अब सवाल तो कई हैं जिनको उठाने में अगर हमने देर की तो अगला नंबर हमारा भी हो सकता है। सवाल उठाना एक लड़ाई है जो निर्भीक होकर लड़नी होगी। सवाल है विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री से जो उस शहर से 5 बार सांसद चुने गए जिसमे ये घटना घटी। 5 बार सांसद चुने जाने के बाद भी आपने मेडिकल कॉलेज के उद्धार व इंसेफेलाइटिस के रोकथाम के लिए क्या महत्त्वपूर्ण कदम उठाए ? महीनों मुख्यमंत्री रहते हुए आपने बदलाव के क्या प्रयास किये ?
सवाल तो पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश से भी पूछे जाने चाहिए,मायावती से भी और इस दौर के सभी आला अधिकारीयों से भी।
COURTESY: Dainikbhaskar.com
परन्तु इन सभी सवालों से परे हमारा ये मानना है सवाल मुख्यमंत्री की प्राथमिकताओं पर उठने चाहिए जो शायद ऊपर के सभी सवालों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री बनने के बाद आपकी प्राथमिकताएं क्या रही और आपने क्या महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए ?
क्या जनता ने आपको एंटी रोमियो स्क्वाड बनाने के लिए चुना था जिसका परिणाम आप सब जानते हैं. कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जिसमे उत्तर प्रदेश पुलिस ने भाई-बहन को भी नहीं छोड़ा,प्रेम के देवता श्री कृष्ण की धरती पर कोई प्रेम करने का साहस भला कैसे करता। इस तरह से पुलिस वालों को “वसूली” की एक नई विधि मिली।
क्या जनता ने आपको गौ रक्षक या किसी धर्म विशेष के रक्षक के तौर पर चुना था ? अवैध बूचङखाने बंद कराने में कोई बुराई नहीं है पर सरकार बनने के तुरंत बाद क्या यही आपके लिए प्राथमिक कार्य था? प्रदेश में स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था जस की तस है,वो आपकी प्राथमिकताओं में क्यों नहीं है ? मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद यदि आप अवैध बूचड़खानों,कांवड़ियों,गौ रक्षकों इत्यादि से हटकर शिक्षा सुधार सम्बंधित कोई बड़ा और ईमानदारी से ठोस निर्णय लेते तो ये प्रदेश के लिए हितकारी नहीं होता ? यदि आप स्वास्थ्य के क्षेत्र में कोई ठोस कदम उठाते तो क्या ये प्रदेश को आगे ले जाने वाला कदम नहीं होता ? तब शायद गोरखपुर जैसी घटनाओं पर भी रोक लगाई जा सकती।
सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार की स्थिति वैसी ही है जैसी पुरानी सरकारों में थी और हम ये मानते भी है की कुछ ही महीनों में ये सुधार संभव नहीं हैं पर आप एक शुरुआत तो करते इन कुरीतिओं से लड़ने की।परन्तु चिंता का विषय ये है की दुर्भाग्यवश ये मुद्दे आपकी उस प्राथमिकताओं की सूची में बहुत नीचे है जिसमे गौरक्षा और बूचड़खानों जैसे मुद्दे पहले पायदान पर हैं।इस देश के सभी नागरिकों को अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से उनकी प्राथमिकताओं पर सवाल करने होंगे अगर इस देश को सच में विश्वगुरु बनाना है तो इस देश के नेताओं और योजना बनाने वाले बुद्धिजीवियों को अपनी प्राथमिकताएं बदलनी होंगी।
                                                                                                                                                                ( लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने निजी विचार हैं.)
 

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